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एक वक़्त था
जब इंतज़ार रहता
था
डाक के आते ही
अपने ख़ज़ाने को
बटोर लेने का
वक़्त था वह
जब वे हसीन
लव्ज़
दिल में बस जाते
थे
ख़ामोशी से बार
बार
पढ़े जाते थे
उपहार में वो खत
मुस्कराहटें दे
जाते थे
उस वक़्त का
ज़ायका
अब भी ज़हन में
है कहीं
उन पन्नों की
खुशबुएँ
महसूस हैं अभी
भी कहीं
न जाने फिर
कैसे वह वक़्त
बदला
वो कागज़ मुर्झा
से गए
सन्नाटे की खाई
में
सारे अलफ़ाज़ खो
गए
दिल की आवाज़ पर
ताला पड़ गया
भर्राये गले से
नग्मा छिन गया
वक़्त और गुज़रा
जुड़ते गए कई
वाक़ियात
कई ने फिर किया
आघात
ढूँढते रह गए
वजाहात
वक़्त ठहर सा
गया फिर
नज़रें आप से
मिलाई जब
बगिया खिल उठी
फिर
नज़्मों को गले
लगाया जब
खुद से खुल कर
बातें जब की
हमने
मन का मलाल
मिटने लगा
नए साहस ने साथ
निभाया
अब भर्राए गले
के बावजूद
नग्मे गुनगुनाते
हैं
और किसी से ना
सही
खुद से खूब
बतियाते हैं
वक़्त फिर बदल
रहा है शायद
- July 8,2020
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